Srimad Bhagavad Gita Chapter 16 Verse 13, 14, 15, 16

इदमद्य मया लब्धमिमं प्राप्स्ये मनोरथम् । 
इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम् ।। 13 ।। 
असौ मया हतः शत्रुर्हनिष्ये चापरानापि । 
ईश्वरोऽहमहं भोगी सिद्धोऽहं बलनान्सुखी ।। 14 ।। 
आढयोऽभिजनवानस्मि कोऽन्योस्ति सदृशो मया । 
यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य इत्यज्ञानविमोहिताः ।। 15 ।। 
अनेकचित्तविभ्रान्ता मोहजालसमावृता: । 
प्रसक्ताः कामभोगेषु पतन्ति नरकेऽशुचौ ।। 16 ।।

वे सोचा करते हैं कि मैंने आज यह प्राप्त कर लिया है और अब इस मनोरथ को प्राप्त कर लूँगा ।   मेरे पास यह इतना धन है और फिर भी यह हो जायेगा ।   वह शत्रु मेरे द्वारा मारा गया और उन दूसरे शत्रुओं को भी मैं मार डालूँगा ।   मैं ईश्वर हूँ, ऐश्वर्य को भोगने वाला हूँ ।   मैं सब सिद्धियों से युक्त हूँ और बलवान तथा सुखी हूँ ।   मैं बड़ा धनी और बड़े कुटुम्बवाला हूँ ।   मेरे समान दूसरा कौन है? मैं यज्ञ करूँगा, दान दूँगा और आमोद-प्रमोद करूँगा ।   इस प्रकार अज्ञान से मोहित रहने वाले तथा अनेक प्रकार से भ्रमित चित्तवाले मोहरूप जाल से समावृत और विषयभोगों में अत्यन्त आसक्त आसुर लोग महान अपवित्र नरक में गिरते हैं ।  (13, 14, 15, 16)

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