Srimad Bhagavad Gita Chapter 15 Verse 3, 4
न रूपमस्येह तथोपलभ्यते
नान्तो न चादिर्न च सम्प्रतिष्ठा ।
अश्वत्थमेनं सुविरुढमूल–
मसङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्वा ।। 3 ।।
ततः पदं तत्परिमार्गितव्यं
यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः ।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये
यतः प्रवृत्तिः प्रसूता पुराणी ।। 4 ।।
इस संसार वृक्ष का स्वरूप जैसा कहा है वैसा यहाँ विचारकाल में नहीं पाया जाता, क्योंकि न तो इसका आदि है और न अन्त है तथा न इसकी अच्छी प्रकार से स्थिति ही है । इसलिए इस अहंता-ममता और वासनारूप अति दृढ़ मूलों वाले संसाररूप पीपल के वृक्ष को वैराग्यरुप शस्त्र द्वारा काटकर । उसके पश्चात् उस परम पदरूप परमेश्वर को भली भाँति खोजना चाहिए, जिसमें गये हुए पुरुष फिर लौटकर संसार में नहीं आते और जिस परमेश्वर से इस पुरातन संसार-वृक्ष की प्रवृत्ति विस्तार को प्राप्त हुई है, उसी आदिपुरुष नारायण के मैं शरण हूँ – इस प्रकार दृढ़ निश्चय करके उस परमेश्वर का मनन और निदिध्यासन करना चाहिए । (3, 4)